गांधी, भारतीय रेल और स्वच्छता

योगेश अवस्थी  #yogeshavasthi

(यह लेख रेल मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पत्रिका भारतीय रेल के अक्टूबर 2018 अंक में प्रकाशित किया गया है ।) 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी भारतीय रेल के बिना अधूरी है। महात्मा गांधी से लेकर लगभग सभी जाने माने स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने के लिए भारतीय रेल का सहारा लिया।
लेकिन आज हम बात करेंगे, 2 अक्टूबर, 1969 को पोरबंदर (गुजरात) में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी के भारतीय रेल के साथ रहे अटूट रिश्ते की। गांधीजी ने देश के लोगों की समस्याएँ समझने के लिए भारत भ्रमण करते समय तीसरे दर्जे में यात्रा करना पसंद किया।
तीसरे दर्जे में यात्रियों की तकलीफें तथा यात्रियों की आदतों की वजह से हो रही गंदगी उनकी चिंता का मुख्य विषय रही। उन्होंने जहाँ रेल प्रबंधकों को यात्री सुविधाओं को सुधारने के लिए पत्र लिखे, वहीं उन्होंने यात्रियों को यात्र के समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, इसके बारे में लेख तथा विशेष पुस्तिका प्रकाशित कर, निःशुल्क वितरित की। गांधीजी ने अंत तक अपने भाषणों, पत्रों एवं लेखों आदि में रेलवे का उल्लेख किया है।
रेलवे और गांधीजी का अटूट रिश्ता उनकी अस्थि यात्रा में भी बना रहा। भारतीय रेल के साथ गांधीजी के संबंधों को लेकर समय-समय पर काफी पुस्तकें, लेख आदि प्रकाशित होते रहे हैं।
गांधीजी की रेल यात्राओं और उनके महत्त्व को कुछ शब्दों या पन्नों में समाहित करना असंभव कार्य है, इसलिए हम इस लेख तथा चुनिंदा

तस्वीरों के माध्यम से भारतीय रेल में गांधीजी की यात्रा के संस्मरणों को केवल स्पर्श करने की छोटी-सी कोशिश मात्र कर रहे हैं।

रेल डिब्बे में विश्राम करते हुए गांधीजी 1946
गांधीजी को आंदोलनकारी बनाने वाली रेलवे की घटना
गांधीजी को एक आंदोलनकारी बनाने में रेलवे की जिस घटना ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी वो घटी थी दक्षिण अफ्रीका के पीटरमैरिट्जबर्ग में जहाँ एक रात एक गोरे ने फर्स्ट क्लास रेल डिब्बे से गांधीजी को सामान समेत प्लेटफॉर्म पर फेंक दिया था। उसके बाद की कहानी हम सबको पता ही है।
भारत में उन्होंने तीसरे दर्जे की यात्री सुविधाओं तथा स्टेशनों पर हिन्दू-मुस्लिम पानी और चाय के विषय में भी अपने आंदोलनकारी तेवर हमेशा दिखाये थे।

रेल यात्रा के दौरान पढ़ी पुस्तक ने जीवन को नई दिशा दी
उनके जीवन में परिवर्तन लाने वाली पुस्तकअन्टु दिस लास्टउन्होंने रेल में पढ़ी। जिसका उन पर गहरा असर पड़ा।

गांधीजी की भारतीय रेल में प्रथम यात्रा
जनवरी, 1888 - राजकोट में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के पश्चात् आगे के पढ़ाई की लिए 18 वर्षीय मोहनदास गांधी को भावनगर के शामलदास कॉलेज जाना था। भावनगर तक जाने के लिए उन्होंने राजकोट से जेतपुर की यात्रा ऊंटगाड़ी में बैठ कर की थी। जेतपुर से भावनगर का सफर उन्होंने रेलगाड़ी में किया था। जो उनकी सबसे पहली रेल यात्रा थी। इस यात्रा में उनके सहपाठी प्राणशंकर जोशी भी उनके साथ थे।

गांधीजी ने प्रथम बार रेल यात्रा का उल्लेख किया
10 अगस्त, 1888 - बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए गांधीजी को लंदन जाना था, तब उन्होंने राजकोट से मुंबई तक की यात्रा रेल द्वारा की थी। जिसका उल्लेख उन्होंने अपनीलंदन डायरीमें किया है। उन्होंने अपनी इस यात्रा के दौरान गोंडल, घोला, वढ़वाण, जेतपुर आदि स्टेशन का उल्लेख किया है।

बैरिस्टर गांधीजी की बंबई (मुंबई) - राजकोट यात्रा
10 जून, 1891 - के दिन बैरिस्टर की पदवी लेकर 12 जून को मोहनदास गांधी हिन्दुस्तान आने के लिए रवाना हुए। यहाँ आने के पश्चात् उन्होंने राजकोट-मुंबई के बीच कई बार रेल द्वारा यात्रा की थी।

भारतीय रेल में गांधीजी की सबसे लंबी रेल यात्रा
गांधीजी 4 जुलाई, 1896 को दक्षिण अफ्रीका से कलकत्ता (कोलकाता) पहुँचे। दूसरे ही दिन उन्होंने कलकत्ता से राजकोट तक की पहली लम्बी रेल यात्रा की और 9 जुलाई, 1896 को वहाँ पहुँचे। इस यात्रा के दौरान रेल कर्मचारी के दयालु व्यवहार का परिचय भी गांधीजी को हुआ था। उन्होंने लिखा -
कलकत्ता से बम्बई जाते हुए प्रयाग बीच में पड़ता था। वहाँ ट्रेन 45 मिनट रूकती थी। इस बीच मैंने शहर का एक चक्कर लगा आने का विचार किया। मुझे केमिस्ट की दुकान से दवा भी खरीदनी थी। केमिस्ट ऊंघता हुआ बाहर निकला। दवा देने में उसने काफी देर कर दी। मैं स्टेशन पर पहुँचा तो गाड़ी चलती दिखाई पड़ी। भले स्टेशन मास्टर ने मेरे लिए गाड़ी एक मिनट रोकी थी, पर मुझे वापस आते देखकर उसने मेरा सामान उतरवा लेने की सावधानी बरती।
इसके पश्चात् उन्होंने राजकोट से बम्बई की यात्रा की। 26 सितम्बर, 1896 को वे एक सभा को संबोधित करने के लिए बम्बई गये। वहाँ से पूना, मद्रास, कलकत्ता, राजकोट होते हुए पुनः दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हो गये। इस प्रकार भारत भ्रमण के दौरान भारतीय रेल के साथ उनके रोमांस का सूत्रपात हुआ।

पुनः देश लौटने के पश्चात् रेल यात्रा
पुनः देश लौटने के बाद 17 दिसम्बर, 1901 को राजकोट पहुँचने के तीन दिन पश्चात् वे मुंबई के लिए निकले। जहाँ से वे कलकत्ता कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए गए।
उनके राजनैतिक गुरू गोपालकृष्ण गोखले ने उन्हें देश की राजनीति में प्रवेश करने से पूर्व एक वर्ष तक देश की यात्रा करने की सलाह दी थी। जिसके चलते उन्होंने भारत भ्रमण तीसरे दर्जे में करने का मन बनाया।
गांधीजी के शब्दों में मैंने सोचा था कि धंधे में लगने से पहले हिन्दुस्तान की एक छोटी-सी यात्रा रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में करूँगा, और तीसरे दर्जे के यात्रियों का परिचय प्राप्त करके उनका कष्ट जान लूंगा। मैंने गोखले के सामने अपना यह विचार रखा। उन्होंने पहले तो उसे हंसकर उड़ा दिया पर जब मैंने इस यात्रा के विषय में अपनी आशाओं का वर्णन किया, तो उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मेरी योजना को स्वीकृति दे दी।

तीसरे दर्जे की यात्रा और स्वच्छता के प्रति चिंता
उन्होंने 1902 में वास्तविक भारत से निकटस्थता प्राप्त करने की उनकी इच्छा के एक अंग के रूप में, तीसरे दर्जे में यात्रा की। उनका यह रेलवे का योजनाबद्ध प्रयोग 1915 में भी जारी रहा था।
गांधीजी के शब्दों में रेलवे विभाग की ओर से होने वाली असुविधाओं के अलावा यात्रियों की गन्दी आदतें सुघड़ यात्री के लिए तीसरे दर्जे की यात्रा को दण्ड स्वरूप बना देती हैं। चाहे जहाँ थूकना, चाहे जहाँ कचरा डालना, चाहे जैसे और चाहे जब बीड़ी पीना, पान-तम्बाकू चबाना और जहाँ बैठे हों वहीं उसकी पिचकारियाँ छोड़ना, फर्श पर जूठन गिराना, चिल्ला-चिल्लाकर बातें करना, पास में बैठे हुए आदमी की सुख-सुविधा का विचार करना और गन्दी भाषा का प्रयोग करना तो सार्वत्रिक अनुभव हैं। तीसरे दर्जे की यात्रा के अपने 1902 के अनुभव में और 1915 से 1919 तक के मेरे दूसरी बार के ऐसे ही अखण्ड अनुभव में मैंने बहुत अंतर नहीं पाया।

सामान्य तीसरे दर्जे के यात्री के रूप में (1915-1920)
सदा के लिए दक्षिण अफ्रीका छोड़ते हुए लन्दन होकर गांधीजी और कस्तूरबा 9 जनवरी, 1915 के दिन बम्बई पहुँचे। लेकिन तब तक वे सत्याग्रह का दर्शन और इसके प्रयोग के लेखक के रूप में एक विश्व प्रसिद्ध व्यक्ति हो चुके थे। सहज ही एक बड़ी भीड़ ने उनका स्वागत किया।
उसके बाद गांधीजी ने रेल द्वारा देश के कोने-कोने की यात्रा की। प्रारम्भ में वे बम्बई से 15 जनवरी को अहमदाबाद गये और 4 फरवरी को वापस बम्बई आये। 17 फरवरी को वे शांति निकेतन (बोलपुर रेलवे स्टेशन) पहुंचे, गांधीजी और कस्तूरबा वहाँ लगभग दो सप्ताह तक रहे। 19 फरवरी को गोपालकृष्ण गोखले की मृत्यु का संदेश मिलते ही वे दूसरे दिन पूना के लिए रवाना हो गये। 4 मार्च को शान्ति निकेतन वापस आकर गुरूदेव टैगोर से मुलाकात की। शान्ति निकेतन से वे कलकत्ता और बीच में समुद्री जहाज द्वारा रंगून की संक्षिप्त यात्रा के अलावा हरिद्वार और ऋषिकेश, दिल्ली, मथुरा और वृंदावन और चेन्नै यात्रा करते हुए 11 मई, 1915 को अहमदाबाद पहुँचे। वहाँ उन्होंने सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की।
फरवरी, 1916 - फरवरी, 1916 से पूर्व तक गांधीजी की यात्राएँ मुख्यतः बम्बई और पूना तक सीमित रहीं और फिर उन्होंने बनारस, चेन्न, हैदराबाद (सिंध पाकिस्तान), कराची और हरिद्वार की यात्राएँ की। ये यात्राएँ उनके पटना, मुजफ्रफरपुर, मोतीहारी और उत्तरी बिहार के दूसरे स्थानों तक पहुँचने तक जारी रहीं, जहाँ उन्होंने अप्रैल, 1917 में भारत में अपना पहला सत्याग्रह प्रारंभ किया। इसके पश्चात् कई स्थानीय सत्याग्रह हुए। उनकी यात्राएँ और सत्याग्रह तथा रोलैट एक्ट और जलियाँवाला बाग त्रासदी जैसी, क्रांतिकारी घटनाओं ने अनायास ही उन्हें भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम के अविवादित नेता की स्थिति में पहुँचा दिया। गांधीजी अक्सर बा (कस्तूरबा) और अपने पुत्रों के साथ तीसरे दर्जे में यात्राएँ करते रहे।
दूसरी लम्बी यात्रा गांधीजी ने शान्तिनिकेतन से पूना के बीच की थी। इसका रोचक स्मरण उन्होंने अपने लेखतीसरे दर्जे के यात्रियों की व्यथामें किया है, जिसमें उन्होंने रेलवे नौकरशाही से उनकी भिड़न्त, क्षमता से अधिक भीड़-भाड़ और तीसरे दर्जे में यात्रा करने की दूसरी कठिनाईयों आदि का वर्णन किया है।

विरमगाम जंक्शन हिन्दुस्तान में गांधीजी का प्रथम सत्याग्रह का आरंभ बिन्दु बना
अंग्रेजी सरकार द्वारा विरमगाम रेलवे जंक्शन से गुजरने वाले यात्रियों के पास से मनचाहा टैक्स वसूल किया जाता था, जिससे सामान्य प्रजा काफी त्रस्त हो गई थी। दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान वापस आने के बाद गांधीजी जनवरी, 1915 में ट्रेन के तीसरे दर्जे में यात्रा कर अपने गांव काठियावाड़ गये जहाँ उनसे लोगों ने इस विषय में अपनी शिकायत की। इस विषय में उन्होंने अंग्रेज सरकार से पत्रचार किया, मुलाकात की अंततः नवम्बर, 1917 में टैक्स वसूल करना बंद कर दिया गया। गांधीजी ने अपनी पुस्तकदक्षिण अफ्रीकाना सत्याग्रहनो इतिहास में लिखा है कि हिन्दुस्तान में सत्याग्रह के लिए विशाल क्षेत्र है। वीरमगाम टैक्स की छोटी-सी लड़ाई से यह क्रम शुरू हुआ है।

तीसरे दर्जे की यात्रा कर पाने का अफसोस
1918-19 के दौरान उनकी अपनी गंभीर बीमारी ने उन्हें तीसरे दर्जे की यात्रा कुछ समय के लिए छोड़ देने को मजबूर कर दिया। बाद में जब तक वे तीसरे दर्जे की यात्रा दोबारा प्रारंभ करते तब तक, उनकी महात्मा वाली छवि ने इसमें अपने रंग और नई समस्याएँ जोड़ दी थीं। उन्होंने लिखा -
अपनी बीमारी के कारण मुझे सन् 1920 से तीसरे दर्जे की यात्रा लगभग बन्द कर देनी पड़ी है। इसका दुःख और लज्जा मुझे सदा बनी रहती है। और वह भी ऐसे अवसर पर बन्द करनी पड़ी, जब तीसरे दर्जे के यात्रियों की तकलीफों को दूर करने का काम कुछ ठिकाने लग रहा था।

तीसरे दर्जे के यात्रियों को शिक्षा देती पुस्तिका
तीसरे दर्जे में यात्रा करने वाले सामान्य यात्रियों की हालत से वे इतने चिंतित थे कि उन्होंने गुजराती में एक लघु पुस्तिका प्रकाशित कर डाली, जो निःशुल्क वितरित की गई थी। काठियावाड़ टाइम्स के 26 जुलाई, 1916 के अंक में इस पुस्तिका को प्रकाशित भी किया गया था। इस पुस्तिका में रेलवे के साथ-साथ लोगों को यात्रा के दौरान किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, जिससे उनकी यात्रा सुखद हो सके, इस पर भी चर्चा की गयी थी। इस पुस्तिका में यात्रियों को उन्होंने सुखद यात्रा के लिए 10 सुझाव दिये थे।

तीसरे दर्जे का सबसे कड़वा अनुभव
अपनेभाषणों का वर्षके अंतिम दिनों में कराची से कलकत्ता की यात्रा करते हुए, जहाँ वे 6 मार्च, 1917 के दिन पहुँचे थे, उन्हें इस यात्रा के कड़वे अनुभव हुए।
लाहौर में ट्रेन बदलनी थी। भीड़ काफी थी। एक मजदूर को बारह आने देकर डिब्बे के अंदर घुसे थे। घुसे क्या, उस मजदूर ने गांधीजी को उठाकर खिड़की में से अंदर डाल दिया था। पहले तो कुछ देर तक दूसरे यात्री गांधीजी को परेशान करते रहे। जब उन्होंने अपना नाम बताया, तब जाकर, उन्हें बैठने के लिए थोड़ी-सी जगह मिल पाई और वे जैसे-तैसे कलकत्ता पहुँचे।

तीसरे दर्जे के यात्रियों के प्रति पक्षपात
भारत पहुँचने पर अपनी पहली बम्बई से राजकोट तक की रेलयात्रा के विवरण में उन्होंने कई व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक विषयों को समेटा था। यात्रा के दौरान गांधीजी ने काठियावाडी कपड़े पहने हुए थे। वे कहते हैं कि ऐसी पोशाक पहनने वाले की गिनती गरीब आदमी में होती थी। उस समय वीरमगांव और बढ़वाण में प्लेग के कारण तीसरे दर्जे के यात्रियों की जांच होती थी।
गांधीजी ने तीसरे दर्ज के यात्रियों के साथ हो रहे पक्षपात, दुर्व्यवहार को बड़े ही मार्मिक ढंग से अपने कई लेखों में सविस्तृत व्यक्त किया है।

महात्मा एक यात्री के रूप में (1921-1941)
11 अगस्त, 1918 को नडियाद में वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। इस लम्बी बीमारी ने उन्हें बारंबार की यात्राओं से रोक दिया। फिर, भारत के राजनैतिक जीवन में उनके बढ़ते प्रभुत्व के परिणामस्वरूप उनकी व्यस्तता भी स्वाभाविक थी। इसके बावजूद, रेलवे में उनकी दिलचस्पी बरकरार रही।
बीमारी के पश्चात् जब वे फिर से तीसरे दर्जे में यात्रा करने लायक हुए, तब तक वे महात्मा बन चुके थे, जिनके दर्शन के लिए भारतीय जनमानस उन सभी स्थानों पर जहाँ उनकी रेलगाड़ी रूकती, झुण्ड में इकट्ठे हो जाते। उन्होंने तीसरे दर्जे में यात्रा कर पाने की अपनी असमर्थता पर खेद व्यक्त करते हुए कहा है कि जब कभी तीसरे दर्जे की याद आती है, पहले या दूसरे दर्जे में अपनी यात्रा पर शर्म मालूम होती है।
1929 के बाद से ही गांधीजी तीसरे दर्जे की यात्रा पुनः प्रारंभ कर पाये। (यात्रा के दौरान गांधीजी तथा उनके साथी अक्सर विशेष तीसरे दर्जे के डिब्बे का उपयोग करते थे)
एक घटना क्रम में गांधीजी और उनके साथी कलकत्ता, शांतिनिकेतन (बोलपुर) दार्जिलिंग से होते हुए 10 जून को जलपाइगुड़ी पहुँचते हैं। वहाँ से उन्हें दूसरे दिन ढाका जिले के एक गांव नवाबगंज पहुँचना था। दार्जिलिंग-कलकत्ता मेल देर से चल रही थी, जिसकी वजह से पोरादह से ढाका मेल में उनका डिब्बा जोड़ने से रह गया था। एक विशेष रेलगाड़ी पार्वतीपुर से गोलुण्डो तक के लिए तैयार की गई। जिसमें एक इंजन, एक डिब्बा और गार्ड का डिब्बा जोड़ा गया और जिसका खर्च रुपये 1140 आया था।

भारत छोड़ो काल और अंतिम काल (1942-1948)
भारत छोड़ो आंदोलन 8 अगस्त, 1942 को शुरू हुआ, जब उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राष्ट्र कोकरो या मरोका नारा दिया। उन्हें आगा खां पैलेस में 6 मई, 1944 तक कैद करके रखा गया।
यहाँ से रिहा होने के बाद गांधीजी को अपने जीवन के अन्तिम तीन वर्ष, आठ महीनों के दौरान क्रांतिकारी राजनैतिक परिवर्तनों और साम्प्रदायिक हत्याकांड का सामना करना पड़ा। किन्तु फिर भी उन्होंने तीसरे दर्जे में यात्रा जैसे पसंदीदा विषय के साथ-साथ दूसरे महत्त्व के विषयों पर बातचीत की।
एक अन्य घटनाक्रम में 1945 में गांधीजी ने बंगाल की यात्रा की। तीसरे दर्जे के दो डिब्बे उनके तथा उनके साथियों के लिए आरक्षित करवाये गये थे। जब यह बात गांधीजी को पता चली तो उन्होंने उसमें से एक डिब्बा अन्य यात्रियों के बैठने के लिए दे दिया।
1945 के अंतिम दिनों में गांधीजी कलकत्ता में थे। वहाँ पर अखिल भारतीय महिला सम्मेलन था। गांधीजी नेगांधी स्पेशलमें यात्रा की, जिसमें एक इंजन, गार्ड का डिब्बा और एक तीसरे दर्जे का डिब्बा था।

रेलवे प्रबंधकों, संपादकों आदि को लिखे पत्र
तीसरे दर्जे के यात्रियों को हो रही तकलीफ तथा यात्रियों की आदतों को लेकर गांधीजी ने रेलवे प्रबंधकर्ताओं, संपादकों, युनियन तथा अन्य लोगों को पत्र लिखे। इन पत्रें को उस समय के प्रसिद्ध अखबारों ने लेख के रूप में भी प्रकाशित किया।
23 फरवरी, 1915 को ईस्ट इंडियन रेलवे के ट्रैफिक मैनेजर को तीसरे दर्जे के डिब्बे में दाखिल होने में हर प्रकार से असफल रहने पर ऊंचे दर्जे के डिब्बे में चढ़ जाने के कारण अतिरिक्त किराया वसूले जाने पर गांधीजी ने एक पत्र भी लिखा था।
28 जून, 1915 को अहमदाबाद से पूना यात्रा के बारे में उन्होंने ग्रेड इंडियन पैनिन्सुला रेलवे, मुंबई के जनरल ट्रैफिक मैनेजर को शिकायत पत्र भेजा था।
उन्होंने 25 सितम्बर, 1917 को इलाहाबाद के लीडरके सम्पादक को रांची से एक लंबा पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैंने उत्तर से लाहौर तक, दक्षिण से ट्रेंकेबार तक और कराची से कलकत्ता तक यात्रा की है। यात्रा के दौरान दिखी त्रुटियों के विषय में मैंने भिन्न-भिन्न रेलों के प्रबंधकर्त्ताओं से पत्र व्यवहार भी किया है। समाचार-पत्र विषय को उठायें। जिसे बाद में लीडरसे प्रकाशित भी किया। इस प्रकाशित लेख की प्रति तथा एक पत्र गांधीजी ने व्यापार और उद्योग विभाग के सचिव को भेजा, जिनके अन्तर्गत रेलवे का कार्यभार था।
स्टेट्समैनसमाचार-पत्र के 29 सितम्बर, 1917 के अंक मेंमिस्टर गांधी एज थर्ड क्लास पैसेन्जरशीर्षक से सम्पादक के नाम पत्र प्रकाशित हुआ। इस पत्र में गांधीजी ने हाल ही में की गई बम्बई से मद्रास की अपनी रेल यात्रा का वर्णन किया है।

गांधीजी के लेख भाषणों में रेलवे और स्वच्छता
गांधीजी देश के कोने-कोने की यात्रा करते और भाषण देते, इन सभी में उनकी तीसरे दर्जे की यात्रा की तकलीफें तथा स्टेशन पर हिन्दु-मुस्लिम पानी और चाय जैसे सामाजिक भेदभाव के प्रति उनकी वेदना हमेशा झलकती रही।
6 फरवरी, 1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में भाषण देते हुए गांधीजी ने तीसरे दर्जे के यात्रियों को हो रही तकलीफों के लिए रेलवे के साथ-साथ यात्रियों को भी समानरूप से जिम्मेदार ठहराया। वे हमेशा अपने आसपास के लोगों को स्वच्छता रखने तथा अच्छा व्यवहार करने की हिमायत करते थे।
2 अक्टूबर, 1927 के दिन अपने 59वें जन्मदिन के अवसर पर विरूद्धनगर (तमिलनाडू) में एक आम सभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने रेलगाड़ियों पर स्वच्छता और सबसे ज्यादा पैसा अदा करने वाले तीसरे दर्जे के यात्रियों की रेलवे द्वारा की जा रही उपेक्षा की चर्चा की।
1929 में तीसरे दर्जे के यात्रियों पर उनका दूसरा महत्त्वपूर्ण लेख आया जिसमें उन्होंने विस्तार से रेलगाड़ियों पर स्वच्छता की स्थिति, अत्यधिक भीड़-भाड़ और अतिरिक्त डिब्बों की आवश्यकता, प्रशासन और यात्रियों की सुस्ती तथा उपेक्षा और कर्मचारी संघ के कर्त्तव्यों आदि की चर्चा की।
8 फरवरी, 1946 को सेवाग्राम आश्रम में लिखा गया गांधीजी का एक लेख है। ऐसा नहीं कि वे केवल तीसरे दर्जे के यात्रियों की बात करते रहे उन्होंने रेल कर्मचारियों की समस्या के बारे में भी अपने विचार तथा चिंता व्यक्त की थी।

हिन्दू-मुस्लिम पानी और चाय की प्रथा से दुःखी गांधीजी
रेल यात्रियों की समस्या के साथ-साथ गांधीजी ने रेलगाड़ी तथा स्टेशनों पर हिन्दू-मुस्लिम पानी और चाय की प्रथा को लेकर अपना दुःख व्यक्त किया था।
7 मार्च, 1946 को पुणे से लिखते हुए गांधीजी ने अपनी गहरी वेदना व्यक्त करते हुए लिखा था कि स्टेशनों पर हिन्दू चाय और मुसलमान चाय वगैरह चीजें अलग अलग बिकती हैं।
रेलगाड़ी और रेलवे स्टेशन तो लोगों के ऐब दूर करने, उनमें एकता फैलाने, समाज में सभ्यता और सफाई वगैरह कामों को सीखने के सुन्दर साधन बन सकते हैं।
अिखल भारतीय चखार् संघ के 8 अक्तूबर, 1946 के दिल्ली अधिवेशन के पश्चात् उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव के विषय परहिन्दू पानी और मुस्लिम पानी शीर्षक के अंतर्गत लेख लिखा था।

अंतिम दस्तावेज- बिना टिकट यात्रा पर गांधीजी की वेदना
आज़ादी के पश्चात् काफी लोग बिना टिकट रेलवे में यात्रा कर रहे थे जिसके कारण रेलवे को उस समय करीबन 8 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। गांधीजी ने 28 अक्टूबर को नई दिल्ली की प्रार्थना सभा में इस विषय में अपनी वेदना व्यक्त करते हुए कहा था कि - लोगों ने यह सोच लिया कि चलो, स्वराज्य तो अब मिल ही गया, तो रेल में बैठकर जाने में टिकट की क्या दरकार है?
लेकिन अभी कुछ दिनों से तो ऐसा हो गया कि सारे हिन्दुस्तान में या कहो कि सारी यूनियन में काफी लोग रेलों में बगैर टिकट चलते हैं। बड़े-बड़े लोग भी यह सोचते हैं कि चलो, अब तो रेलें हमारी हो गई हैं। रेलें तो हमारी हो गई हैं, इसमें तो कोई शक नहीं, लेकिन इस तरह से करने का नतीजा यह हुआ है कि हमारा 8 करोड़ रुपया बरबाद हो गया है।
मेरे हिसाब से तो यह बिलकुट लूट है। इस तरह से तो हिन्दुस्तान कंगाल हो जायेगा और हमारे पास रेलगाड़ियां रहेंगी और कुछ और होगा। इसलिए अगर एक भी आदमी रेल में यात्रा करता है तो बिना पैसे दिये करे। उसको पैसे देने ही चाहिए।
जहाँ तक भारतीय रेल का संबंध है तो यह उनकाअन्तिम दस्तावेज था।

अस्थि यात्रा भी भारतीय रेल में
गांधीजी की हत्या 30 जनवरी, 1948 के दिन की गयी थी। उनके अंतिम संस्कार के पश्चात् उनकी
अस्थि विसर्जित करने के लिए दिल्ली से इलाहाबाद तक पांच डिब्बों की अस्थि विशेष ट्रेन चलाई गई। हरे
डिब्बों की इस ट्रेन के बीच के डिब्बे को अस्थिकलश के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया था। तीसरे दर्जे के डिब्बे में से सभी यात्री बैठकें हटा दी गई थीं। डिब्बे के बीच में एक बड़ा एवं ऊंचा टेबल रखा गया था। जिससे जनता इस अस्थिकुंभ के दर्शन बाहर खिड़की से भी कर सके।
डिब्बे में अखंड धुन, गीता पारायण और अखंड चरखा चलाना इलाहाबाद तक रखा गया था। दिल्ली से इलाहाबाद के बीच दस महत्त्वपूर्ण स्टेशनों पर अस्थि विशेष ट्रेन का ठहराव निश्चित किया गया था। हर जगह गांधीजी की अस्थि कलश के दर्शन के लिए मानव सागर उमड़ रहा था।

यह लेख नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित पुस्तकमहात्मा गांधी और रेलवे (संकलनकर्त्ता डॉ- वाई-पी- आनंद) के कुछ अंश और सार प्रस्तुत करने की कोशिश है।



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